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जीवन कथाएँ >> अथ कैकेयी कथा

अथ कैकेयी कथा

राजेन्द्र अरुण

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5097
आईएसबीएन :81-7315-616-6

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कैकेयी के जीवन पर आधारित पुस्तक

Ath Kaikeyi Katha a hindi book by Rajendra Arun - अथ कैकेयी कथा - राजेन्द्र अरुण

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

कैकेयी की कथा श्रेष्ठ मूल्यों से बिछुड़ने की कथा है । जब यशस्वी मनुष्य स्वार्थवश अपने आचरण को संकुचित करता है तब जीवन में उत्पात और उपद्रव की सृष्टि होती है। इसीलिए बार-बार हमारे धर्म-ग्रन्थों ने दोहराया है कि उच्च पदस्थ व्यक्ति को अनिवार्यत: सदाचार करना चाहिए। जिस पथ पर श्रेष्ठ जन चलते हैं वही मार्ग है। कैकेयी चलीं, लेकिन उनकी यात्रा नहीं बन पायी, क्योंकि वह आदर्शों से फिसल गयी थीं।
आचरण की प्रामाणिकता की पहचान आपदा के समय होती है। शान्त समय में हर व्यक्ति श्रेष्ठ और सदाचारी होता है। आपदा मनुष्य के आचरण को अपने ताप की कसौटी पर कसती है। जो निखर गया वह कुन्दन है, जो बिखर गया वह कोयला। कैकेयी आपदा के इस तार में बिखर गयीं। ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिशोध में फँसकर उन्होंने ‘परमप्रिय’ राम को दण्ड दे दिया।
जीवन में श्रेष्ठ एवं उदात्त मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध हिन्दू चित्त ने कैकेयी को राम पर आघात करने के लिए दण्ड दिया। उसने निर्ममतापूर्वक कैकेयी के नाम को हिन्दू परिवार की नाम-सूची से बाहर कर दिया। अशिव का तिरस्कार और शिव का सत्कार, यही हिन्दू चित्त की विशेषता है।

भूमिका

कैकेयी: काई कथा


कैकेयी की कथा श्रेष्ठ मूल्यों से बिछलने की कथा है। जब यशस्वी मनुष्य स्वार्थवश अपने आचरण को संकुचित करता है तब जीवन में उत्पात और उपद्रव की सृष्टि होती है। इसीलिए बार-बार हमारे धर्म ग्रंथों ने दोहराया है कि उच्च पदस्थ व्यक्ति को अनिवार्यत: सदाचार करना चाहिए। जिस पर श्रेष्ठजन चलते हैं, वही मार्ग है। कैकेयी चलीं, लेकिन उनकी यात्रा मार्ग नहीं बन पाई, क्योंकि वह आदर्शों से फिसल गयी थीं।
आचरण की प्रामाणिकता की पहचान आपदा के समय होती है। शान्त समय में हर व्यक्ति श्रेष्ठ और सदाचारी होता है। आपदा मनुष्य के आचरण को अपने ताप की कसौटी पर कसती है। जो निखर गया वह कुन्दन है, जो बिखर गया वह कोयला। कैकेयी आपदा के ताप में बिखर गयीं। यह सच है कि दशरथ ने उन्हें राम के राज्याभिषेक का निर्णय लेते समय विश्वास में नहीं लिया था, यह दशरथ की त्रुटि थी। इस कारण कैकेयी का आक्रोश उचित था, लेकिन जो कीमत कैकेयी ने इस त्रुटि के लिए दशरथ से माँगी, वह बड़ी भारी थी। भरत के लिए राज्य माँगना दशरथ को दण्ड देने के लिए पर्याप्त हो सकता था, किन्तु राम के लिए वनवास मांगना आक्रोश को प्रतिशोध की हद तक खींचता था। भरत को समझाते हुए भरद्वाज ऋषि ने कैकेयी की इस अति का संकेत किया था।
राम गवनु बन अनरथ मूला।
जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
-सारे अनर्थ की जड़ तो राम का वन-गमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई।
राम के चरित्र को भरद्वाज कितना यशस्वी बनाते हैं। राम को दु:ख देना संसार को दु:ख देना है। सचमुच, जब श्रेष्ठ व्यक्ति पीड़ित होता है, तब जगत् पीड़ित होता है। रावण अपने आचरण से ऋषि-मुनियों को पीड़ित कर रहा था, इससे पूरा समाज थर्रा रहा था। कैकेयी ने ‘सकल सुमंगल’ राम को पीड़ित करके सारे संसार को अपने प्रति क्षुब्ध कर लिया था।
दशरथ की चाल को विफल करने के लिए यदि कैकेयी ने अपने वरदान की माँग में अति न की होती तो कैकेयी का यशस्वी जीवन इतना कलुषित और निन्दित न होता। आपदा के समय आचरण को सन्तुलित न कर पाने का दण्ड नियति ने कैकेयी को दिया। इसीलिए वह रामकथा की सरयू धारा में ‘काई’ बन गयीं।


काई कुमति केकई केरी।
परी जासु फल बिपति घनेरी।।

-कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी।
तालाब के बँधे जल में यदि काई आ जाये तो स्थिति सहज और अपेक्षित होती है, किन्तु प्रवाहपूर्ण नदी के जल में काई का आना गम्भीर समस्या है। रघुकुल के पवित्र-प्रवाहपूर्ण परिवार में विश्वास के संकट का जन्म एकदम से अप्रत्याशित था। इस अप्रत्याशित को घटित करके कैकेयी सदा के लिए कलंकित हो गयीं। उनकी कुबुद्धि के कारण अयोध्या में भारी विपत्ति आ गयी।

रामायण के बहुत सारे भक्त इसे कैकेयी की दूर-दृष्टि कहते हैं और उनकी इस बात के लिए सराहना करते हैं कि उन्होंने अपने को कलंकित करके राम को वनवासी बनाया। कैकेयी के इस कृत्य का लाभ गिनाते हुए वे कहते हैं कि यदि राम वन नहीं जाते तो राम के यशस्वी आचरण के चरण अयोध्या से ‘रामेश्वरम्’ तक कैसे पहुँचते ? वनवासियों को आर्य संस्कृति की सुधा कौन पिलाता ? उत्तर और दक्षिण को अपनी स्नेह डोर से कौन बाँधता ? अत्याचारी रावण के अन्याय को कौन मिटाता ? जन-जन के हृदय में राम की कीर्ति-कथा को कौन बैठाता ?

मैं हिन्दू मन की इस सोच को अच्छी तरह से समझता हूँ कि संसार में सम्पूर्ण रूप से बुरा कोई नहीं है। सदाचार मनुष्य का स्वभाव है। इस स्वभाव में विकार आने पर ही वह दुराचार करता है। व्यक्ति में दुराचार की डिग्री कितनी भी बढ़ जाये, वह सदाचार से शून्य कभी नहीं होता है। इस दृष्टि से हिन्दू मन का कैकेयी के प्रति मृदु-कोमल होना परम वन्दनीय लगता है; लेकिन इससे कैकेयी के अपराध किसी तरह कम नहीं होते हैं।

मेरा यह स्पष्ट मत है कि यदि सचमुच कैकेयी को राम के यश को फैलाने की कामना थी, यदि हृदय से वह अयोध्या से रामेश्वरम् तक की जनता का राम के माध्यम से उद्धार चाहती थीं तो इसके लिए उन्हें कोप-भवन जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। वह दशरथ, राम और कौशल्या के साथ एक बैठक करतीं, अपनी योजना को उन्हें समझातीं और राम को यशस्वी करने के साथ-ही-साथ स्वयं भी यशस्वी बन जातीं। वह दूसरी विश्वामित्र बन जातीं; क्योंकि दशरथ ने विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण को राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के लिए भेजा ही था। इस बार वह कैकेयी के कहने पर राम और लक्ष्मण को भेज देते। भरत और शत्रुघ्न भी उनके सहायक बन कर जा सकते थे। अयोध्या के राजकुमार की दिग्विजय इतिहास में अमर हो जाती।

ऐसा हो पाता तो अयोध्या में कैकेयी की कुमति की नहीं, सुमति की चर्चा होती। कैकेयी हिन्दू हृदय में राम से भी अधिक वन्दनीय बनकर बैठ जातीं, जैसे भरत बैठ गये। आचरण की जिस दुर्बलता से कैकेयी ने अपने को निन्दनीय बनाया, आचरण की उसी सबलता से भरत ने अपने को परम वन्दनीय बनाया।
वास्तव में जब दुर्घटना घट जाती हैं, तब हम उसके आघात को कम करने के लिए कई कारण खोजते हैं। यदि दुर्घटना किसी दुष्ट व्यक्ति से हुई हैं तो हम उसकी दुष्टता पर सारा भार डालकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। लेकिन यदि कोई अच्छा व्यक्ति दुर्घटना का कारण बनता है तो हम उसकी अच्छाई को एकदम से खारिज नहीं करते, उसके बुरा बनने के कारक तत्त्वों की खोज करते हैं। खोज की यह वृत्ति ही हमारे स्वभाव के देवत्व की पहचान है। यदि हम स्वभाव से दानव होते तो अपने या किसी और के दुष्कर्म पर पछताते नहीं। कैकेयी के प्रति सबका पछतावा इस शुभ दृष्टि और देवभाव का फल है।
भरत के सामने सबसे पहले कैकेयी के अपराध को कम करने का प्रयत्न गुरु वसिष्ठ करते हैं।
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।।
-मुनि नाथ ने बिलखकर कहा-हे भरत! सुनो, भावी बड़ा बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश ये सब विधाता के हाथ हैं।
गुरु वसिष्ठ कैकेयी के अपराध को हलका करने के लिए भावी को दोष दे रहे हैं। जब कोई अच्छा मनुष्य दुष्कर्म कर बैठता है तो उसे तर्कसंगत बनाने का यही एक उपाय बचता है।
अस बिचारि केहि देइअ दोसू।
ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।
-ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाये ? और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाये ?
होनी को सर्वोपरि मानकर वसिष्ठ कैकेयी के अपराध के बोझ और भरत के दु:ख को हलका कर रहे हैं। यदि कैकेयी सदैव से ही दुष्ट होती तो इस तरह से समझाने की आवश्यकता वसिष्ठ को नहीं पड़ती।
जब भरत चित्रकूट की यात्रा पर होते हैं तो वह उन स्थानों को देखना चाहते हैं जहाँ वनवासी राम पहली बार रुके थे। निषादराज गुह उन्हें उन सभी स्थानों को दिखाता है जहाँ-जहाँ राम-सीता और लक्ष्मण ने विश्राम किया था। राजभवन की सुख-सुविधा को भोगनेवाले राम ने वनवासियों की तरह पहली रात किस तरह बितायी होगी, यह सोचकर भरत काँप उठे। उन्होंने माँ कैकेयी को धिक्कारना शुरू कर दिया। निषादराज गुह उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि दोष कैकेयी का नहीं, विधाता का है।

बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।

-प्रतिकूल विधाता की करनी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया। उस रात को प्रभु राम बार-बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे।

निषाद के इस वचन में भी विधाता को ही दोष दिया गया है। अच्छी कैकेयी को बुरी बनाने का दायित्व भावी के माथे पर मढ़ा गया है।
भरद्वाज ऋषि भी सरस्वती को दोष देकर कैकेयी को बचाना चाहते हैं।* भरद्वाज ऋषि द्वारा कैकेयी का किया गया बचाव सबसे अधिक आन्तरिक और तर्कपूर्ण है। सबसे पहले भरद्वाज ही घोषित करते हैं कि कैकेयी अपनी करनी पर पछतायीं।
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*तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।
-मानस, अयो.दोहा,206

सो भावी बस रानि अयानी।
करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
-श्रीराम का वन-गमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अंत में पछतायीं।
कैकेयी को निर्दोष सिद्ध करने के लिए सबसे प्रबल और करुणामय तर्क भरद्वारजी का ही है। सबकी तरह वह भी भावी को दोष देते हैं, लेकिन दो और बड़ी प्यारी बातें कहते हैं। सबसे करुणामय बात यह है कि वह रानी को बेसमझ कहते हैं। सयाना व्यक्ति यदि दुष्टता करे तो उसे उसका काँइयाँपन कहा जाएगा, किन्तु यदि अयाना व्यक्ति दुष्टता करे तो उसे उसकी अबोधता कहा जाएगा। काइयाँ व्यक्ति दण्डनीय होता है और अबोध व्यक्ति क्षम्य। कैकेयी को ‘अयानी’ कहकर भरद्वाज सभी से कैकेयी के प्रति क्षमापूर्ण होने का संकेत देते हैं।

भरद्वाजजी दूसरी बात यह कहते हैं कि कैकेयी कुचाल करके अन्त में पछतायीं। इससे कैकेयी का चरित्र दिव्य बनता है। दुष्कार्य करके पछताना चरित्र की सबसे बड़ी श्रेष्ठता होती है।
चैतन्य महाप्रभु के जीवन की एक कथा है-जब वे श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन से जन-जन का उद्धार कर रहे थे तो उसी समय जगन्नाथ और माधव (छोटा नाम जगाई और मधाई) जमींदार के रूप में जन-जन पर अत्याचार कर रहे थे। चैतन्य के परम प्रिय शिष्य नित्यानन्द महाराज ने अत्याचारी भाइयों का उद्धार करना चाहा। वे उन्हें हरि नाम कीर्तन सुनाने प्रात: चार बजे पहुँच गये। शोर सुनकर जगाई और मधाई क्रोध से काँप उठे। उन्होंने नित्यानन्द को पत्थर से मार दिया। नित्यानन्दजी के ललाट से खून बहने लगा। शिष्य उन्हें उठाकर चैतन्य के पास ले गये। चैतन्य महाप्रभु नित्यानन्द के बहते खून को देखकर बौखला गये। वह दौड़कर जगाई और मधाई के पास पहुँचे और तेजस्वी स्वर में कहा, ‘अरे नराधम ! तुमने मेरे कृष्ण पर हाथ उठाया ! तुम्हारी यह हिम्मत !’

जगाई और मधाई ने उन्हें भी पत्थर उठाकर मारने की कोशिश की, पर उनका हाथ जड़ हो गया। चैतन्य के रौद्र रूप को देखकर वे भीतर तक काँप उठे। भक्तिभाव से आर्त होकर वह चैतन्य के चरणों में गिर पड़े।
चैतन्य ने उन्हें शिष्य के रूप में अपना लिया, लेकिन जगाई और मधाई का मन इतने से ही शान्त नहीं हुआ। वे अपने अपराधों को लेकर बहुत चिन्तित थे। उन्होंने चैतन्य से अपराध-शमन का कोई उपाय बताने को कहा। चैतन्य ने उन्हें सलाह दी कि वे नित्य गंगा तट पर प्रात: काल जायें और वहाँ नहाने आये सभी व्यक्तियों के चरणों को छूकर अपने अपने अपराध के लिए क्षमा माँगे। ऐसा करके ही उनका अपराध शमन होगा। दोनों भाइयों ने ऐसा ही किया।

प्रायश्चित करके अपराध का शमन और शोधन करना चरित्र की सबसे बड़ी शुद्धता और श्रेष्ठता है। भरद्वाजजी कहते हैं कि कैकेयी ने कुचाल तो किया, पर अन्त में उसे करके पछतायीं। कैकेयी के पक्ष में इससे प्रबल तर्क और किसी ने अभी तक नहीं दिया था। राम जब कैकेयी से मिलते हैं तो अपने व्यवहार से उनके मन को और साफ करने का प्रयत्न करते हैं।
प्रथम राम भेंटी कैकेई।
सरल सुभायँ भगति मति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोध बहोरी।
काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।
-सबसे पहले राम कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उनकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल-कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर श्रीराम ने उनको सान्त्वना दी।
कैकेयी के अपराध बोध को कम करने के लिए राम सबसे पहले उनसे ही मिलते हैं। राम ने सदैव कैकेयी को आदर दिया था। कैकेयी के लिए भी राम लाड़ले बेटे थे। अत: राम ने कैकेयी के अपराध को ध्यान न देकर सम्बन्ध को ध्यान दिया। उन्होंने अपनी भक्ति और सरल स्वभाव से उनकी बुद्धि को तर किया। वास्तव में महिमामयी कैकेयी की बुद्धि ही मारी गयी थी। उनका हृदय तो सदैव ही विशाल था। बुद्धि की कुटिलता से ही उनका हृदय दूषित हुआ था। अत: राम ने उनकी बुद्धि का शोधन अपने व्यवहार से किया।

इतना ही नहीं, उन्होंने कैकेयी के पाँव पड़कर समझाया। काल-कर्म और विधाता को दोष देकर उनके मन के अपराध-भाव को हलका किया। कैकेयी को आदर देकर राम ने उनके चरित्र के सत्त्व को महत्त्व दिया, उनके आचरण की क्षणिक दुर्बलता को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।
अब तक कैकेयी के अपराध को कम करने के लिए लोग जो कुछ कह रहे थे, वह कैकेयी की जानकारी में नहीं था। प्राय: लोग भरत के मन को हलका करने के लिए ऐसी बातें कर रहे थे। आज राम निश्छल भाव से कैकेयी की बुद्धि को भक्तिभाव से भिगो रहे थे। कैकेयी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। राम के चरित्र की विराट्ता ने कैकेयी के भीतर सोये विराट् चरित्र को जाग्रत किया। राम, लक्ष्मण और सीता को चित्रकूट में दयनीय देखकर कैकेयी भीतर तक छटपटा उठीं।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई।
कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई।
महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।

-सीता समेत दोनों भाइयों (राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछतायीं। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती हैं, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जाने के लिए रास्ता) नहीं देती और विधाता मृत्यु नहीं देता।
भरद्वाज ने कैकेयी के पछताने की जो बात कही थी वह उनके ऋषि स्वभाव की करुणा की प्रतीक थी। किन्तु आज जो कैकेयी पछता रही हैं वह उनके हृदय की सात्त्विक अभिव्यक्ति है। वह धरती और विधाता से अपने लिए मृत्यु माँग रही हैं। कैकेयी की यह याचना उनके चरित्र को बहुत उदात्त बनाती है। श्रेष्ठजन जब अपराध करते हैं तो परमात्मा से मृत्यु जैसा ही कठोर दण्ड माँगते हैं।

राम को दु:खमय जीवन जीते देखकर यदि कैकेयी नहीं पछतायीं तो वह पत्थर हृदय कही जातीं, जो कि वह थीं नहीं। अत: उनका यह पछतावा उनके पाप को धोता है, उनके चरित्र को निखारता है। उनके आचरण की क्षणिक दुर्बलता के ऊपर उनके साधु आचरण की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठित करता है।
कैकेयी भरत के साथ राम से मिलने के लिए अयोध्या से चलकर चित्रकूट तक आयी थीं। यह भी उनके मन के पछतावे को प्रकट करता है। वे आने से मना भी कर सकती थीं। लेकिन तब वह स्वभावत: निष्ठुर और क्रूर कही जातीं। यह बात अलग है कि इस पछतावे के लिए उन्हें भरत ने तैयार किया था। यदि भरत प्रसन्नतापूर्वक उनके षड्यंत्र में शामिल हो जाते तो कैकेयी कभी नहीं सुधरतीं। पतन के गर्त में गिरनेवाले व्यक्ति को सहारा देनेवाला मिल जाये तो अनर्थ रुक जाता है। भरत ने कैकेयी को इसी अनर्थ से बचाया। इसीलिए राम को चित्रकूट में देखकर कैकेयी पछतायीं और चौदह वर्षों के वनवास के बाद राम को अयोध्या में देखकर सकुचायीं।*

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• रामहिं मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि।
-मानस, उत्तर, दोहा 6 (क)

अपराध-बोध से संकुचित कैकेयी को राम ने और पीड़ित-प्रताड़ित होने के लिए अकेला नहीं छोड़ा। दयामय राम को पता था कि चौदह वर्षों तक सबसे अलग-थलग और उपेक्षित-कलंकित माँ कैकेयी ने अपार दु:ख झेले हैं। अत: वे जब सबसे मिलकर अपने भवन की ओर जाते हैं तो एकान्त में मिलने के लिए वे कैकेयी के निवास पर पहुँच जाते हैं।
प्रभु जानी कैकई लजानी।
प्रथम तासु गृह गए भवानी।।
-(शिवजी कहते हैं) हे भवानी ! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गयी हैं, इसीलिए वे पहले उन्हीं के महल में गये।
सहृदय व्यक्ति देह-भाषा से मन-भाषा को पढ़ लेता है। राम ने जब संकुचित कैकेयी को देखा तो समझ लिया कि वे भीतर से बहुत लज्जित हैं। कैकेयी के विराट् व्यक्तित्व के इस मौन उद्घोष को राम ने समझ लिया। अपने अपराध के प्रति संकुचित और लज्जित होकर कैकेयी अपने चरित्र की दिव्यता को पुन: प्राप्त कर रही थीं। राम ने इस शुभ कार्य में उनकी सहायता की।
ताहि प्रबोधि बहुत दुख दीन्हा।
पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।
-(राम ने) कैकेयी को समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्री हरि ने अपने महल को गमन किया।

लज्जित व्यक्ति को प्रेम से समझाने से बढ़कर और कोई ओषधि नहीं है। यदि समझानेवाला वह व्यक्ति हो कि जिसके प्रति अपराध किया गया हो तो उस सान्त्वना का मोल और बढ़ जाता है। कैकेयी के मन के अपराध-बोध को राम के अतिरिक्त और कोई कम नहीं कर सकता था। यह कार्य सार्वजनिक रूप से भी सम्भव नहीं था। इससे माँ कैकेयी और आहत, संकुचित और लज्जित होतीं। इसीलिए राम उनके महल में आये।
यहाँ एक बात और ध्यान देने की है। राम ने कैकेयी के पास आने में विलम्ब नहीं किया। तुरन्त पहुँचकर उन्होंने अपनी परम स्नेहमयी माँ को यह संकेत दिया कि मैं तुम्हारी पीड़ा से परिचित हूँ। ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध में आकर तुमने भले ही मुझे दण्डित किया हो, पर भीतर से तुम मेरे प्रति परम वत्सल हो।

जिस व्यक्ति ने दु:ख दिया हो उसे जब दुख पानेवाला समझाये तो इसमें एक आशंका होती है। दु:ख देनेवाला अपने को अपमानित अनुभव कर सकता है। राम कैकेयी को इस पीड़ा से बचाना चाहते है। अत: उन्हें समझाकर सुखी करते हैं। प्रबोध जब सुख-बोध में बदल जाये तो समझना चाहिए कि उसका प्रभाव सकारात्मक है।
राम ने अपनी ममतामयी माँ के मन की ग्लानि को अपने प्रेम से निकालकर सुख भाव से भर दिया। चौदह वर्षों तक अपने अपराध के ताप से जलती कैकेयी को निश्चय ही एक दैवी सन्तोष प्राप्त हुआ होगा। सम्भवत: इसी सन्तोष के सहारे वह भरत की उपेक्षा के बाद भी अपना शेष जीवन जी सकी होंगी।

कैकेयी की कथा हमें बताती है कि अपने काम को पूरा करने के लिए और दूसरों को दु:ख देने के लिए कोई निर्णय लेते समय हम जल्दीबाजी न करें। इससे अन्त में पछतावा होता है और चरित्र कलुषित बनता है, हमारे भीतर का देवत्व दुर्बल होता है। परिणामत: समाज-परिवार की दैवी शक्ति क्षीण होती है।


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